एक रोज़ कमरा साफ़ करते हुए कुछ पन्ने बिखर गए,
जो कभी किसी कौने मे काली स्याही से दबा के रखे थे।
लगा जैसे दिन के किसी रूठे अरमान को
टूटते ख़्वाब की किसी नींद से उठा लिया हो।
उजाले का शऊर पेहरेदार तुरंत चीख पड़ा,
शोर से पहले उन लफ्ज़ो को फिर वही दबा दो।
पर उन खड़ी सफ़ेद दीवारों का भीगा मुंतज़िर
उस सुखी स्याही को डुबना चाहता था।
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